183--02-11
ये मन कहाँ मानता
"निरंतर"नया
करने की सोचता
ना आराम करता
ना चुप बैठता
उम्मीद में जीता
हर दिन नयी
संभावनाएं तलाशता
एक पूरी होती
दूसरे की इच्छा रखता
सदा बेचैन रहता
कभी संतुष्ट ना होता
संतुष्ट होता तो
मन ना कहलाता
बिना मन के इंसान
इंसान ना होता
02-02-2011
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