185--02-11
मानस
पटल से हटता नहीं
द्रश्य वर्षों पुराना
ऊपर नीला गगन
द्रश्य वर्षों पुराना
ऊपर नीला गगन
पहाड़ की चोटियों से
अठखेलियाँ कर रहे
रुई से सफ़ेद बादलों
से भरा
नीचे नदी कल कल
बह रही
स्वच्छ.निर्मल जल
स्वच्छ.निर्मल जल
आगे ले जा रही
सफ़ेद भेड़ें हरी घास में
सफ़ेद भेड़ें हरी घास में
चर रही
नदी,और आकाश
नदी,और आकाश
के बीच
पहाड़ पर संगीत की
महफ़िल सजी हूई
चरवाहा बांसुरी
चरवाहा बांसुरी
बजा रहा
संगीत और सुर की
संगीत और सुर की
सरिता बहा रहा
कोयल पेड़ पर बैठी
कोयल पेड़ पर बैठी
कूंक रही
मैना भी कुछ कुछ
बोल रही
काम साजिंदों का
काम साजिंदों का
कर रही
धरती पर "निरंतर"
धरती पर "निरंतर"
स्वर्ग का आभास
हो रहा
आज वर्षों बाद
आज वर्षों बाद
लौटा हूँ
जगह वही,नाम वही
नदी वही,पहाड़ वही
पर द्रश्य सारा
पर द्रश्य सारा
बदल गया
नदी की धारा
नदी की धारा
मटमैली हो गयी
नदी किनारे घास
नदी किनारे घास
पीली पड गयी
आस पास
कारखाने बन गए
चिमनियों से धुंआ
उगल रहे
आकाश का नीलापन
आकाश का नीलापन
धुंधला गया
पेड़ कम हो गये
पेड़ कम हो गये
कोयल,मैना की
आवाज़ खो गई
चरवाहा भेड़ों को बेच
चरवाहा भेड़ों को बेच
कारखाने में काम
करने लगा
अहसास हो गया
यहाँ भी आदमी
अहसास हो गया
यहाँ भी आदमी
के साथ
मशीन का आगमन
हो गया
विकास का तमगा
विकास का तमगा
लग गया
इंसान विकास के
नाम पर
परमात्मा के वरदान से
छेड़ छाड़ कर रहा
कीमत उस की
चुका रहा
स्वर्ग से दूर
जा रहा
03-02-2011
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