Thursday, May 10, 2012

दिन के उजाले पर रात की स्याही कैसी


हँसते हुए चेहरे पर आज ये उदासी कैसी

महकाती थी ज़माने को खुशबू जिनकी
आज उन बहारों में ये खिजा की बू कैसी

दिल डूबता है देख कर ये खौफ का मंज़र
शहनाइयों के बीच ये मातमी धुन कैसी

नहीं आ रहा समझ मुस्कुराते लबों पर
आज खुले आम ग़मों की नुमाइश कैसी

ना दे खुदा किसी हसीं को किस्मत ऐसी
मंदिर में हो जाए कब्रिस्तान की खामोशी

मासूम पर खुदा की ये मेहरबानियाँ कैसी 
ना मिले किसी दुश्मन को भी सज़ा ऐसी
10-05-2012
510-25-05-12


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