346—16-03-11
होंसला मेरा
कम ना समझना
हार गया ये ना
मानना
जब दिल ही दे दिया
लड़ना बेकार था
चाह कर भी जीत
ना सकता
हार कर भी अहसास
जीत का होता
जब रकीब उन के
जैसा होता
कौन कमबख्त
उस से लड़ता
खंजर भी
मुस्कारा कर खायेंगे
ज़ुल्म कितना भी करें
निरंतर खुशी से सहेंगे
ये क्या कम है
जहन में तो रहेंगे
ज़िंदा हैं जब तक
याद तो आएँगे
03—03-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
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