Monday, March 12, 2012

अपेक्षाओं का संसार

कमरे की खिड़की के
बाहर झांकता हूँ
तो मेरे द्वारा रोपा हुआ
नीम का पेड़ दिखता है
रोपने के तीन चार वर्षों तक
उसे नियमित रूप से
सींचा था
वो भी अपनी इच्छा से
उसने कभी नहीं कहा
मुझे पानी से सीचों
पर उसने सदा ही
कुछ ना कुछ सबको दिया
छाल,पत्तों, टहनियों,
कोपलों और निम्बोलियों को
पूरी कॉलनी के लोगों ने
भरपूर काम में लिया
धन्यवाद का एक शब्द भी
उसे कभी किसी ने नहीं कहा
पक्षियों ने उसकी डालियों को
घोंसलों से सुशोभित किया
राहगीरों ने उसकी छाया में
विश्राम किया
पर नीम के पेड़ ने कभी
किसी से
बदले में कुछ नहीं माँगा
मूक और शांत रह कर
निस्वार्थ भाव से सबको
कुछ ना कुछ देता रहा
और तो और समय समय पर
उसकी डालियों को काट कर
उसे कष्ट पहुंचाया,
वह चुपचाप सहता रहा,
पीड़ा सहने के बाद
पहले से भी अधिक कोपलें
उसमें प्रस्फुटित हुयी ,
नयी टहनियों ने जन्म लिया,
आज नीम के पेड़ ने मुझे
सोचने के लिए बाध्य
कर दिया
मनुष्य उससे कितना कुछ
सीख सकता
सक्षम होने के बाद भी
जीवन भर अपेक्षाएं तो
रखता है
पर देने के नाम पर
सोच में पड़ जाता है
12-03-2012
352-86-03-12

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