Tuesday, February 28, 2012

कलम की व्यथा

मैंने सोचा
आज कुछ नहीं लिखूं
कलम को विश्राम दे दूं
कलम को पता चला
तो बुरा मान गयी
तुरंत बोली
कुछ तो ख्याल करो मेरा
खूब ऊंगलियों में
दबाया
तुमने मुझको
जैसा चाहा,जब चाहा
चलाया मुझको
मन के भाव 
दुनिया को बताने का 
साधन बनाया मुझको
मैंने हँसते हँसते 
सदा साथ निभाया 
तुम्हारे विचारों को
कागज़ पर उकेरा
ना कभी रुकी
ना शिकायत करी
निरंतर चलती रही
फिर आज क्यों नहीं 
लिख रहे हो
कुछ
क्यों व्यथित
कर रहे हो मुझको
यह जानते हो तुम
बिना चले
मन दुखी होता है मेरा
लगता है किसी
काम की नहीं रही
अब निर्णय को बदल दो
मुझे खुश कर दो
कम से कम
एक कविता तो
लिख दो
28-02-2012
260-171-02-12

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