Wednesday, May 2, 2012

झूठ का आवरण

किसी ने तुम्हारे प्रशंसा में
दो मीठे शब्द बोल दिए ,
तुम पचा नहीं पाए
फूल कर कुप्पा गए
बिना यह सोचे समझे
कहने वाले का मंतव्य क्या था
क्या वाकई तुम उन शब्दों के
लायक हो भी या नहीं
बदले में तुम कहने वाले को
समझदार इंसान बताने लगे
उसकी प्रशंसा में कसीदे पढने लगे
जब उसी ने एक  दिन तुम्हें
आइना दिखा दिया,
तुम्हारा कटु सत्य बता दिया
तुम नाराज़ हो गए
उसे भला बुरा कहने लगे
उसे नज़रों से गिरा दिया
सब से उसकी बुराई करने लगे
क्या कभी सोचा तुमने
तुम्हें सत्य अच्छा नहीं लगता
झूठ का आवरण तुम्हें भाता हैं
तुम चाहते हो दूसरे भी
ऐसे आवरण में
खुद को छिपा कर रखें
अब आत्मअन्वेषण कर लो
तुम कैसे इंसान हो
अगर फिर भी तुम्हें
अपने आप पर
ग्लानी नहीं होती
तो मेरी नज़रों में
तुम एक सच्चे इंसान नहीं हो
तुम्हें झूठ की दुनिया
पसंद है
यह भी ध्यान रखो
झूठ कभी छुपा नहीं रहता
अब तुम ही बताओ तुम पर कैसे विश्वास किया जाए?   
02-05-2012
491-06-05-12

1 comment:

कविता रावत said...

jhooth ho ya sach kabhi na kabhi baahar aati hi hai..
bahut badiya rachna!