Saturday, December 31, 2011

क्षणिकाएं -12


मैं हारा

मैं हारा
तो क्यों हारा
दूसरा जीता
तो क्यों जीता
माँ
माँ
की नहीं मानते
माँ के लाल
माँ फिर भी
उनके लिए बेहाल
मन-दिल
मन बूढा नहीं
होता
सोच हो जाता है
दिल बूढा नहीं
होता
इकरार का तरीका
बदल जाता है
मन मिलना
या तो वो थोड़े
बड़े होते
या मैं थोड़ा
छोटा होता
फिर भी क्या पता ?
मन मिलते या
ना मिलते
मुश्किल
कहना भी मुश्किल
चुप रहना भी
मुश्किल
सहना भी मुश्किल
जीना भी मुश्किल
मुलाक़ात
उनसे
मुलाक़ात तो हुयी
मगर
बात नहीं हुयी
नींद ज़रूर
हराम हो गयी
बैठे ठाले जान की
आफत हो गयी
"मैं "
दबी हुयी कुंठा की
अभिव्यक्ती
मन की पीड़ा
बहुतों को चाहता हूँ
कहते हुए डरता हूँ
सलाह
सलाह देने का
शौक सबको
लेना पसंद नहीं
किसीको
जब सहना ही है
जब सहना ही है
तो रोना क्यों?
31-12-2011
1901-69-12

Thursday, December 29, 2011

हास्य कविता-मैं नहीं कहता,तुम पैसे मत खाओ ( व्यंग्य)


मैं नहीं कहता
तुम पैसे मत खाओ
तुम पैसे तो खाओ
पर इतने तो मत खाओ
पचा भी ना सको
अपच से
बीमार पड़ जाओ
खाना है तो
ऊँट के मुंह में जीरे
जितना खाओ
तुम तो इंसान हो
हाथी के चारे जितना
खा जाते हो
मैं कतई नहीं कहता
तुम झूठ मत बोलो
तुम झूठ तो बोलो
पर इतना तो मत बोलो
बोलने से पहले ही
पकडे जाओ
जनता का विश्वास ही
खो दो
मैं बिलकुल नहीं कहता
तुम घोटाले मत करो
तुम घोटाले तो करो
पर इतने तो मत करो
गरीब का अनाज ही
खा जाओ
गरीब भूख से मर जाए
सड़क दिखे ही नहीं
पुल छ महीने में गिर जाए
निर्दोष मारे जाएँ
मेरे देश के नेताओं
राजनीति तो करो
पर ऐसी तो मत करो
लोग तुमसे
नफरत करने लगें
तुम्हें चोर,डाकू समझने लगें
तुम्हारा नाम सुनते ही
मुंह से अपशब्द निकलें
मैं नहीं कहता
तुम किसी से डरो
पर कम से कम
भगवान् से तो डरो
गरीब की बद्दुआ मत लो 
ऊपर जा कर
क्या जवाब दोगे ?
यह भी तो सोचो
आम आदमी निरंतर
विनती करता रहा तुमसे
इन्सान हो
कम से कम इंसान सा
व्यवहार तो करो
अब यह भी समझ लो
आम आदमी चुप नहीं
बैठेगा
अपने को सुधार लो
प्रजा को राजा मान लो

29-12-2011
1900-68-12

मन के उद्यान में

मन के उद्यान में 
स्नेह,प्रेम से वंचित
भावनाओं के वृक्ष
अनमने भाव से
निस्तेज खड़े हुए
ना कुम्हलाये
ना मुरझाये
ना ही सूखे
स्नेह के फल ,
प्रेम के फूलों की
चाहत में
फिर भी जीवित  
आशा में
आकुलता से देख रहे
प्रतीक्षारत हैं
उसके लिए
जो अथक प्रयास के
बाद भी
उन्हें कभी मिला नहीं
 आशा उनकी
अभी भी जीवित
निरंतर व्याकुल
प्रेम भरे दो शब्द
सुनने के लिए
घ्रणा और स्वार्थ के
बादल छंट जाएँ
भावनाओं के आकाश में
प्रेम,स्नेह सम्मान की
किरणें प्रकट हो
मन के उद्यान को
फिर बहारों से
सुसज्जित करे
अपनों से रिश्तों पर
आस्था,विश्वास को
बनाए रखें
29-12-2011
1899-67-12

Wednesday, December 28, 2011

ये कहानी किस्सा नहीं मेरे शहर का हाल है


धूल से सांस चढ़ती
आँखें जलती
कर्ण फोड़ शोर कानों से
मष्तिष्क में पहुंचता
फुटपाथ पर
पैदल चलने की जगह नहीं
सड़क पर गाड़ियों की
रेलम पेल
शरीर को गाड़ियों से
 बचते बचाते
किसी तरह दफ्तर से घर
आना जाना पड़ता
ऊपर आकाश में देखो
एक आध पक्षी
लावारिस सा उड़ता
दिखता
कहीं से भटक कर
आया लगता
घर में गौरियों की चचहाहट
किसी अतिथि सी
भूले  भटके सुनायी देती 
तितलियाँ
अब किवदंतियां लगती
पेड़ धूल से भरे
हरे के बजाये मटमैले दिखते
कब तक जीवित रहेंगे
इस डर से चुपचाप
खड़े रहते
गंदगी के बड़े बड़े ढेर
झुग्गी झोंपड़ियों में
मजबूर जीवन
आधुनिक उपकरणों से
सुसज्जित अस्पताल
आखिर स्वस्थ लोग
ऐसे वातावरण में
बीमार तो होंगे ही
एक स्थान से
दूसरे स्थान पर जाना
 पहाड़ सा लगता
रिश्तों को निभाना
मजबूरी लगता
ताज़ी हवा खाने छत पर
चढ़ना पड़ता
ये कहानी किस्सा नहीं
मेरे शहर का हाल है
जिसके प्रेम में पागल हूँ
समझ नहीं आता
जी रहा हूँ
या अपने को ढ़ो रहा हूँ
उकता जाता हूँ
तो दो चार दिन किसी
पहाडी स्थान पर जा कर
अपने को
आधुनिक और भाग्यशाली
समझता हूँ
फिर किस लिए शहर में
रह रहा हूँ ?
प्रश्न अनुत्तरित भी नहीं  है
भले ही गाँव कस्बों के
लोगों से
निरंतर शहर के पक्ष में
वाद विवाद करता रहूँ
 शहर का पैसा,चकाचोंध ,
बड़े बड़े मॉल
रेस्तरां,सिनेमा हॉल पर
गर्व करता रहूँ
पर खुद से झूठ कैसे बोलूँ ?
प्रक्रति के विनाश में
मेरा भी तो पूर्ण योगदान है
सत्य तो यही है
शहर में सब कुछ है
पर कुछ भी नहीं
लोग गाँव क़स्बे छोड़
शहर में आ रहे हैं
शहर वाले शहर में रहने के
बहाने गिना रहे हैं
बड़ी ही
ह्रदय विदारक स्थिति है
दोनों ही भ्रम में जी रहे हैं
प्रकृति से
दूर होते जा रहे हैं
28-12-2011
1898-66-12

Tuesday, December 27, 2011

कुछ फूल मेरे बगीचे में भी खिल जाए


कुछ फूल
मेरे बगीचे में भी
खिल जाए
काटों के बीच कुछ
महक भी  मिल जाए
ना जाने क्यूं
हर पेड़ सूख जाता
मेरे हाथों में
लाख कोशिश करूँ
जिलाने की
 कामयाबी फिर भी
 हाथ ना आए
उमीदें भी थक गयी
दिलासा देते देते
कुछ तो ऐसा हो जाए
चेहरे पर फिर से
मुस्कान आ जाए
कुछ फूल
मेरे बगीचे में भी
खिल जाए
27-12-2011
1897-65-12

दिल के अरमान कभी पूरे नहीं होते

दिल के अरमान
कभी पूरे नहीं होते
दिल की आग
बुझाने की कोशिश में
निरंतर जलते रहते
सम्हलने की कोशिश में
और उलझते जाते
रोज़ नए अफ़साने
बनते रहते
दिन ज़िन्दगी के
यूँ ही गुजरते जाते
हम खामोशी से
सहते जाते

ग़मों को पीते जाते
ज़िन्दगी
जब तक है बाकी
मुस्करा कर जिए
 जाते
27-12-2011
1895-63-12

हम स्वतंत्र हैं ,ये प्रजातंत्र है


हर 
चेहरे पर व्यथा
हर ह्रदय में दुःख
हर मन व्यथित
भयावह स्थिती है
महंगाई से जनता
त्रस्त है
देश भ्रष्टाचार की
बीमारी से ग्रसित है
नेता मस्त हैं
हम स्वतंत्र हैं
ये प्रजातंत्र है
गरीब
उसका मतदाता
भूख
उसका आभूषण
रोना उसकी आदत
काम जैसा भी मिले
जितना भी मिले
मिले ना मिले
उसे तो जीना है
लुभावने वादों के
प्रलोभन में
फंसना है
हर पांच साल में
मत देना है
फिर से नेताओं को
जिताना है
प्रजातंत्र को
ज़िंदा रखना
उसका कर्तव्य है
स्वतंत्र होने का
साक्ष्य देना है
फिर पांच साल
रोना है
27-12-2011
1894-62-12

नए साल से पहले,नया साल आ गया


अब जश्न मनाने का 
वक़्त आ गया
मौसम खुशगवार
हो गया
नए साल से पहले
नया साल आ गया
आज इंतज़ार ख़तम
हो गया
उम्मीदों को मुकाम
सब्र को नतीजा
मिल गया
आज उनका पैगाम
आ गया
मायूस चेहरे पर
निखार आ गया
दिल को सुकून
मिल गया
27-12-2011
1893-61-12

Monday, December 26, 2011

कुछ शक्लें कुछ वाकये


कुछ
शक्लें कुछ वाकये
जाने अनजाने
मन में घर कर जाते
गाहे बगाहे याद
आ जाते
मन में कुछ सवाल
पैदा कर जाते
कभी चेहरे को
मुस्कान से भर देते
कभी आँखों को नम
कर जाते
यादों से निरंतर
दिल में
जलजले लाते
26-12-2011
1891-59-12

ग़मों का सैलाब भरा है दिल में


ग़मों का
सैलाब भरा है दिल में
उसे बाहर निकलने से
रोके कोई
गर बाहर निकल गया
चूर चूर हो कर
फिर ना सिमट सकूं
ऐसा बिखर जाऊंगा
कोई मिल जाए
मेरे दर्द को समझ ले 
मुझ को
टूटने से पहले बचा ले
फिर से हँसना सिखा दे
खिजा को बहार में
बदल दे
निरंतर नए लोगों से
मिलता हूँ
कोई अपना सा
मिल जाए
तलाश में भटकता हूँ
26-12-2011
1890-58-12

कोई अपना सा


कोई अपना सा
मिल जाता है तो
साथ में हँस लेता हूँ
ना मिले तो
मन मसोस कर
रह जाता हूँ
मन में रो लेता हूँ
किसी बहाने याद कर
मुस्कारने की
कोशिश करता  हूँ
26-12-2011
1891-59-12

व्यथित मन का मित्रों को पत्र

जन्म के साथ ही
आजादी के नाम से
मेरा परिचय हुआ
गाँधी,सुभाष,भगत सिंह
चन्द्र शेखर और देश के लिए
लड़ने वालों को जाना
संस्कारों ,मर्यादाओं
का पालन होते देखा
निस्वार्थ
सार्वजनिक जीवन जीते
नेताओं को देखा
आजादी मिली
हर देशवासी के मन में
उमंग और खुशी थी
अपने देश में
अपनों पर
अपनों का राज देखना
बाकी था
अब तक जो देखा था
उससे पूर्ण
आशा और विश्वास था
अब गरीब गरीब नहीं रहेगा
देश का धन देश में रहेगा
हर देशवासी का जीवन
सुखद होगा
प्यार भाईचारे का वर्चस्व
होगा
आज जन्म के ७० वर्ष बाद
मुझे लगता है
बचपन में जो देखा था
जो सोचा था
वैसा कुछ भी नहीं है
क्या सब भ्रम था ?
क्या अपनों से प्रेम की
आशा करना गलत था ?
क्या अपनों का
अपनों पर राज़ करना
एक दुस्वप्न था ?
अपनों के बीच
खुल कर रो भी नहीं सकता
क्या क्या केवल मैं घुटता हूँ ?
क्या केवल मैं व्यथित हूँ ?
इस प्रश्न का उत्तर खोज
रहा हूँ
मेरे मित्रों से
आग्रह पूर्वक निवेदन करता हूँ
मेरे प्रश्न का उत्तर दें
अगर सहमत हैं ,
तो मुझे बताएं
व्यथा को कम करने के लिए

व्यवस्था को बदलने के लिए
वे क्या कर रहे हैं ?
26-12-2011
1890-58-12

मेरी मेहमान खाने की अलमारी में


मेरी मेहमान खाने की
अलमारी में
कई किताबें करीने से
सजी हैं
कुछ तन्मयता से पढी गयी
जान पहचान वालों के बीच
उनकी चर्चा की गयी
कुछ के कुछ प्रष्ठ ही  
कई ऐसी भी हैं
जिन्हें खोल कर देखा भी नहीं
कुछ सालों से
कुछ महीनों से अलमारी की
शोभा बढ़ा रही हैं
हर आने वाले को
खामोशी से मेरे
साहित्य प्रेमी  होने का
सबूत देती हैं
जिन्हें खोल कर भी नहीं देखा
वो किताबें
मन में व्यथित भी होती होंगी
सोचती होंगी
जितने मन से लेखक ने
उनका सृजन किया
उतने ही मन से
क्यों मैंने उन्हें अलमारी में
धूल खाने को सजाया
मेरे कई चेहरों में से एक
साहित्य प्रेमी होने का
चढ़ाया
जिन्हें मन से पढ़ा
वो खुश होती होंगी
मेरी बढ़ाई करती होंगी
मेरे साहित्य प्रेमी होने का
साक्ष्य देती होंगी
मेरी पढने की इच्छा ,
अनिच्छा
किताबों में द्वेष पैदा करती
 होगी
मुझे इन सब बातों से
कोई मतलब नहीं
निरंतर
नयी किताबें लिखी जायेंगी
जो प्रसिद्द होंगी
चाहे पढूं नहीं
पर दिखाने के लिए खरीदी
जायेंगी
एक अलमारी भर जायेगी
दूसरी में सजा दी
जायेगी
26-12-2011
1889-57-12

Sunday, December 25, 2011

हमें फिर से हँसना सिखा दो

क्या हुआ गर
ज़ख्म कहीं और खाए
किसी और की
रुसवाई का शिकार हुए
हम बीमार-ऐ-इश्क हैं
तुम्हें दिल का
चारागर समझते
बड़ी उम्मीद से
वास्ते इलाज आये हैं
थोड़ा सा
अहसान हम पर कर दो
हमदर्दी का मरहम
लगा दो
दर्द-ऐ-दिल सुन लो
जो हुआ उसे भूलना
सिखा दो
मोहब्बत पर यकीं
फिर से
कायम करवा दो
हमें फिर से हँसना
सिखा दो

(चारागर =चिकत्सक,डाक्टर)
25-12-2011
1888-56-12

Saturday, December 24, 2011

उनकी याद ही काफी है अब रुलाने के लिए

उनका
 ज़िक्र ही काफी है
दिल जलाने के लिए
उनकी याद ही काफी है
अब रुलाने के लिए
उनकी रुसवाई देख ली
हँसते हँसते जान लेने की
अदा देख ली
वादों की कुर्बानी देख ली  
दोजख का
अहसास कर लिया
ज़मीं पर
अब कुछ बाकी नहीं
देखने के लिए
24-12-2011
1887-55-12