Wednesday, December 28, 2011

ये कहानी किस्सा नहीं मेरे शहर का हाल है


धूल से सांस चढ़ती
आँखें जलती
कर्ण फोड़ शोर कानों से
मष्तिष्क में पहुंचता
फुटपाथ पर
पैदल चलने की जगह नहीं
सड़क पर गाड़ियों की
रेलम पेल
शरीर को गाड़ियों से
 बचते बचाते
किसी तरह दफ्तर से घर
आना जाना पड़ता
ऊपर आकाश में देखो
एक आध पक्षी
लावारिस सा उड़ता
दिखता
कहीं से भटक कर
आया लगता
घर में गौरियों की चचहाहट
किसी अतिथि सी
भूले  भटके सुनायी देती 
तितलियाँ
अब किवदंतियां लगती
पेड़ धूल से भरे
हरे के बजाये मटमैले दिखते
कब तक जीवित रहेंगे
इस डर से चुपचाप
खड़े रहते
गंदगी के बड़े बड़े ढेर
झुग्गी झोंपड़ियों में
मजबूर जीवन
आधुनिक उपकरणों से
सुसज्जित अस्पताल
आखिर स्वस्थ लोग
ऐसे वातावरण में
बीमार तो होंगे ही
एक स्थान से
दूसरे स्थान पर जाना
 पहाड़ सा लगता
रिश्तों को निभाना
मजबूरी लगता
ताज़ी हवा खाने छत पर
चढ़ना पड़ता
ये कहानी किस्सा नहीं
मेरे शहर का हाल है
जिसके प्रेम में पागल हूँ
समझ नहीं आता
जी रहा हूँ
या अपने को ढ़ो रहा हूँ
उकता जाता हूँ
तो दो चार दिन किसी
पहाडी स्थान पर जा कर
अपने को
आधुनिक और भाग्यशाली
समझता हूँ
फिर किस लिए शहर में
रह रहा हूँ ?
प्रश्न अनुत्तरित भी नहीं  है
भले ही गाँव कस्बों के
लोगों से
निरंतर शहर के पक्ष में
वाद विवाद करता रहूँ
 शहर का पैसा,चकाचोंध ,
बड़े बड़े मॉल
रेस्तरां,सिनेमा हॉल पर
गर्व करता रहूँ
पर खुद से झूठ कैसे बोलूँ ?
प्रक्रति के विनाश में
मेरा भी तो पूर्ण योगदान है
सत्य तो यही है
शहर में सब कुछ है
पर कुछ भी नहीं
लोग गाँव क़स्बे छोड़
शहर में आ रहे हैं
शहर वाले शहर में रहने के
बहाने गिना रहे हैं
बड़ी ही
ह्रदय विदारक स्थिति है
दोनों ही भ्रम में जी रहे हैं
प्रकृति से
दूर होते जा रहे हैं
28-12-2011
1898-66-12

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