Monday, December 19, 2011

हाथ की लकीरें


सुबह नींद खुलती
रोज़ की तरह
आशाओं से भरी
दृष्टि हथेलियों पर पड़ती
देखता हाथों की लकीरें
वैसी की वैसी
हथेली अधिक खुरदरी
चमड़ी कल से अधिक
मोटी लगती
समझ गया आज भी
कुछ नया नहीं होगा
निरंतर सोचता
क्यों परमात्मा ने हाथों में
लकीरें बनायी ?
फिर उन्हें भाग्य से
जोड़ा दिया
जब लकीरें नहीं बदलती
तो किस्मत कैसे बदलेगी
कितनी मेहनत मजदूरी
कर ले
हालत वैसी ही रहेगी
हो सकता है
परमात्मा ने आशा
बनाए रखने के लिए
हाथों में
लकीरें बनायी होगी
चलो कम से कम
निराशा तो कम होती है
लकीरें कभी तो बदलेगी
सोचते सोचते उठा
रोज़ की तरह मजदूरी
पर निकल पडा
19-12-2011
1871-39-12

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