Tuesday, December 6, 2011

तुम नाराज़ क्यों हो?

तुम नाराज़ क्यों हो?
क्या कहा मैंने,
क्या करा मैंने?
जिसने तुम्हें खामोश
कर दिया
तुम्हारी नाराजगी को
ज़ाहिर कर  दिया
क्यातुम्हें अच्छा कहना
जुर्म हो गया?
या स्नेह भरे लफ़्ज़ों से
ख़त में
तुम्हारी तारीफ़ ने
तुम्हारे मन में मेरे
इरादों पर
शक पैदा कर दिया
क्या रिश्ते पाक नहीं
हो सकते?
क्या अच्छी बात को
अच्छा नहीं कह सकते ?
तुम्ही बताओ कोई कद्रदां
जिनको चाहता
कैसे अपनी बात उस तक
पहुंचाए ?
कसूर तुम्हारा भी नहीं
तुम मुझे जानती भी नहीं
मुझसे कभी मिली भी नहीं
वैसे भी आजकल
अच्छे बुरे का पता कहाँ
चलता है
सच ही तो है
मुस्काराते चेहरों के पीछे
हवस का शैतान छिपा
होता है
चलो कोई बात नहीं
मैं अपनी जगह
तुम अपनी जगह ठीक
सोचती हो
जब मन करे मुझे
आजमां लेना
मुझे तुम्हारे क्रोध से
कोई नाराजगी नहीं
ना ही मन में कोई रंज है
शायद तुम्हारी जगह
मैं होता तो यही करता
तुम्हारी
नाराजगी के बाद भी
बड़े होने के नाते
सच्चे दिल से
स्नेह और आशीर्वाद
सदा देता रहूँगा
तुम्हारी खुशी के लिए
दुआ करता रहूँगा
इस ख़त को
मेरी इमानदारी की
अभिव्यक्ती मत
समझना
मेरे निश्छल मन की
पीड़ा समझना
एक बार गहनता से
सोचना
क्या सबको एक लाठी से
हांकना ठीक होता ?
क्या बुरों के कारण
अच्छों को सज़ा देना
उचित होता ?
तुम्हारे जवाब का
इंतज़ार तो नहीं करूंगा
पर जिस दिन तुम्हारी
चुप्पी टूट जायेगी
खुद समझ जाऊंगा
तुम नाराज़ नहीं हो
06-12-2011
1843-11-12

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