Monday, December 26, 2011

व्यथित मन का मित्रों को पत्र

जन्म के साथ ही
आजादी के नाम से
मेरा परिचय हुआ
गाँधी,सुभाष,भगत सिंह
चन्द्र शेखर और देश के लिए
लड़ने वालों को जाना
संस्कारों ,मर्यादाओं
का पालन होते देखा
निस्वार्थ
सार्वजनिक जीवन जीते
नेताओं को देखा
आजादी मिली
हर देशवासी के मन में
उमंग और खुशी थी
अपने देश में
अपनों पर
अपनों का राज देखना
बाकी था
अब तक जो देखा था
उससे पूर्ण
आशा और विश्वास था
अब गरीब गरीब नहीं रहेगा
देश का धन देश में रहेगा
हर देशवासी का जीवन
सुखद होगा
प्यार भाईचारे का वर्चस्व
होगा
आज जन्म के ७० वर्ष बाद
मुझे लगता है
बचपन में जो देखा था
जो सोचा था
वैसा कुछ भी नहीं है
क्या सब भ्रम था ?
क्या अपनों से प्रेम की
आशा करना गलत था ?
क्या अपनों का
अपनों पर राज़ करना
एक दुस्वप्न था ?
अपनों के बीच
खुल कर रो भी नहीं सकता
क्या क्या केवल मैं घुटता हूँ ?
क्या केवल मैं व्यथित हूँ ?
इस प्रश्न का उत्तर खोज
रहा हूँ
मेरे मित्रों से
आग्रह पूर्वक निवेदन करता हूँ
मेरे प्रश्न का उत्तर दें
अगर सहमत हैं ,
तो मुझे बताएं
व्यथा को कम करने के लिए

व्यवस्था को बदलने के लिए
वे क्या कर रहे हैं ?
26-12-2011
1890-58-12

1 comment:

induravisinghj said...

'व्यथा को कम करने के लिए व्यवस्था को बदलने के लिए'
हम सिर्फ चर्चाएँ ही कर रहे हैं,कटु है पर सच है यही।