ना जाने कितनी
ऋतुएं
बदल गयी
कोई मिला नहीं
जिससे
मन पूरा मिला
बहुत ढूंढा
दुनिया में
किसी में कुछ
बुराई
किसी में कुछ कमी पायी
निरंतर
दूध का धुला
ढूंढता रहा
फिर भी कोई
मिला नहीं
झांका जब खुद
के अन्दर
खुद को भी साफ़
नहीं पाया
छोड़ दिया मन
मुताबिक़
मन ढूंढना
अब जो भी मिलता
खुले दिल से
उससे ही मन
मिलाता हूँ
खुद के मन की
गांठें
सुलझाने की
कोशिश
करता हूँ
741-37-20-09-2012
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