Thursday, October 25, 2012

जब भी अपने कमरे में लौट कर आता हूँ



घंटों बाहर रहने के बाद
जब भी अपने कमरे में
लौट कर आता हूँ
एक अपनेपन का
अहसास होता है
लगता है जैसे मेज़ कुर्सी
बेचैनी से
मेरा इंतज़ार कर रही हैं
मेरी कलम 
मेरी ऊंगलियों में
खेलने को बेताब दिखती है
बिस्तर खुली बाहों से
मुझे आराम करने का
बुलावा देता है
महसूस होता है
टीवी कह रहा  है ,
अब उसे मेरा
मनोरंजन करने का
मौका मिलेगा
टयूब लाईट रोशनी से
कमरे को
जगमगाने के लिए तैयार
बटन दबाने के इंतज़ार में
 दिखती
इतना इंतज़ार तो मेरा
कोई भी नहीं करता
कितनी भी देर के बाद
कमरे में आऊँ
कोई शिकवा शिकायत
नहीं करता
रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में
मेरे साथ
मेरे कमरे के सिवाय
ऐसा कही भी नहीं होता
किसी ना किसी को
कोई ना कोई शिकायत
मुझसे रहती है
कभी कोई नाराज़ हो कर
मुंह फुलाता है
कभी सवालों की झड़ी
लगाता है
मन करता है कमरे से
बाहर निकलूँ ही नहीं
पर मजबूरी है
 नहीं चाहते हुए भी
कुछ घंटे
कमरे को खामोशी से
मेरे इंतजार में छोड़ कर
जाना पड़ता है
मेरे कमरे से बेहतर
मुझे कोई नहीं समझता
798-40-25-10-2012
कमरा,एकांत  

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