आराम से सोये
तो तीन आ जाएँ
कसमसाकर सोना हो तो चार
ठूंस ठांस कर सोना हो तो पांच
पर गरीब की झोंपड़ी थी
आजादी से आज तक
उतनी ही है
चार पांच हाड मांस के पुतले
उसमें ज़िंदा रहते
कोई रात भर खांसता,
कोई जुखाम में नाक
सुकुड़ता रहता
बाकी बचे लोग ना रुकने वाली
आवाजों के कारण जागते रहते
सवेरे अधसोए अधजगे उठते
पेट भरने के लिए
काम पर निकल पड़ते
रात को थक चूर कर
पहले से अधिक कमज़ोर लौटते
इसी झोंपड़ी में एक से दो हुए
फिर दो से तीन,चार,पांच हुए
कुछ साल में
कभी एक कम हो जाता
तो कभी एक नया जुड़ जाता
झोंपड़ी में
तो तीन आ जाएँ
कसमसाकर सोना हो तो चार
ठूंस ठांस कर सोना हो तो पांच
पर गरीब की झोंपड़ी थी
आजादी से आज तक
उतनी ही है
चार पांच हाड मांस के पुतले
उसमें ज़िंदा रहते
कोई रात भर खांसता,
कोई जुखाम में नाक
सुकुड़ता रहता
बाकी बचे लोग ना रुकने वाली
आवाजों के कारण जागते रहते
सवेरे अधसोए अधजगे उठते
पेट भरने के लिए
काम पर निकल पड़ते
रात को थक चूर कर
पहले से अधिक कमज़ोर लौटते
इसी झोंपड़ी में एक से दो हुए
फिर दो से तीन,चार,पांच हुए
कुछ साल में
कभी एक कम हो जाता
तो कभी एक नया जुड़ जाता
झोंपड़ी में
आजादी के बाद बिजली का
एक मरियल सा लट्टू
अवश्य लटक गया
जिसने रात के अँधेरे को तो
कम कर दिया
पर ज़िन्दगी के अँधेरे को
कम ना कर सका
ज़िन्दगी आजादी के पहले भी
लडखडाती थी
लूले लंगड़े प्रजातंत्र में
आज भी लडखडा रही है
देश में और कुछ
बदला ना बदला हो
गरीब की झोंपड़ी नहीं बदली
ऐतहासिक धरोहर सी
अब भी आजादी से पहले की
याद दिलाती है
एक मरियल सा लट्टू
अवश्य लटक गया
जिसने रात के अँधेरे को तो
कम कर दिया
पर ज़िन्दगी के अँधेरे को
कम ना कर सका
ज़िन्दगी आजादी के पहले भी
लडखडाती थी
लूले लंगड़े प्रजातंत्र में
आज भी लडखडा रही है
देश में और कुछ
बदला ना बदला हो
गरीब की झोंपड़ी नहीं बदली
ऐतहासिक धरोहर सी
अब भी आजादी से पहले की
याद दिलाती है
869-53-28-11-2012
व्यंग्य,आजादी,देश,गरीबी,भुखमरी,प्रजातंत्र
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