पता चल जाता
था
क्या पकाया
?
क्या खाया उन्होंने
?
कहाँ गए थे?
कौन आया था
घर उनके
कौन खुश हुआ?
कौन नाराज़ उनसे?
सुबह से शाम
का
हर लम्हा आँखों
के सामने
यूँ गुजर जाता
जैसे
मैंने ही गुजारा
हो
कभी मान मनुहार
घर
बुलाने की
पसंद का खाना
खिलाने की
फिर ना जाने
क्या हुआ
बातों का सिलसिला
थम गया
रिश्तों का
घडा चूने लगा
धीरे धीरे बातें
कम
होने लगी
दुआ सलाम भी
बंद
हो गयी
अध खिला फूल
पूरा खिले ही
रह गया
वो अहसास
अब मन की टीस
बन गया
याद कर के खुद
को
खुश रखना मजबूरी
हो गया
कब महकेगा
?
पाक रिश्तों
का फूल
कब फिर भरेगा
?
बातों का मटका
निरंतर इंतज़ार
में
रहता हूँ
उम्मीद में
जीता हूँ
31-07-2012
638-35-07-12
No comments:
Post a Comment