लाइब्रेरी में मिलती थी
अलमारी से
एक ही किताब
दोनों को चाहिए थी
इसी कोशिश में
सिर्फ ऊंगली छुई थी
कनखियों से देखा था
उसने
मंद मुस्कान से निमंत्रण
दिया
खुद को ना रोक सका
निमंत्रण
सहर्ष स्वीकार किया
अपने को समर्पित किया
कुछ तो ऐसा था उसमें
लाचार खुद को पाया
मना ना कर सका
सिवाय हाँ कहने के
जवाब कुछ और ना
दे पाया
दिल अब पराया
हो गया
25-04-2011
759-179-04-11
1 comment:
बहुत शानदार लिखते हैं आप. आपकी लेखनी के प्रभाव से आपका फोलोवर बनने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं दिखता.
www.mydunali.blogspot.com
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