कभी
मिलने की उम्मीद में
रात गुज़रती थी
अब कब निजात मिलेगी
इस सोच में रात गुज़रती
बहुत अरमानों से
अपना बनाया था उसे
तोड़ कर रख दिया
उसने सपना मेरा
ज़न्नत की तलाश में
रात गुज़रती थी
अब कब निजात मिलेगी
इस सोच में रात गुज़रती
बहुत अरमानों से
अपना बनाया था उसे
तोड़ कर रख दिया
उसने सपना मेरा
ज़न्नत की तलाश में
दोजख मिला था मुझ को
किसी तरह
किसी तरह
ज़िंदा रखा था खुद को
हर दिन
हर दिन
मुश्किल से गुजरता मेरा
किसी कातिल सा
सलूक था उसका मुझसे
हर लम्हा
किसी कातिल सा
सलूक था उसका मुझसे
हर लम्हा
ज़हर लगता था मुझ को
पीना निरंतर नामुमकिन था
दिल मेरा जानता
पीना निरंतर नामुमकिन था
दिल मेरा जानता
कैसे निकाला जंजाल से
खुद को
30-04-2011
30-04-2011
789-209-04-11
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