Saturday, April 30, 2011

दिल मेरा जानता

कभी
मिलने की उम्मीद में
रात गुज़रती थी
अब कब निजात मिलेगी
इस सोच में रात गुज़रती
बहुत अरमानों से
अपना बनाया था उसे
तोड़ कर रख दिया
उसने सपना मेरा
ज़न्नत की तलाश में
 दोजख मिला था मुझ को
किसी तरह
ज़िंदा रखा था खुद को
हर दिन
मुश्किल से गुजरता मेरा
किसी कातिल सा
सलूक था उसका मुझसे
हर लम्हा
ज़हर लगता था मुझ को
पीना निरंतर नामुमकिन था
दिल मेरा जानता
 कैसे निकाला जंजाल से
खुद को
30-04-2011
789-209-04-11

No comments: