Saturday, April 23, 2011

सब चुपचाप देख रहे


शहर बढ़ रहे
जंगल घट रहे
सीमेंट कंक्रीट
दिल के करीब हो गए
फूल पेड़ ख़त्म हो रहे
दरिन्दे खुश हो रहे
जानवर रो रहे
प्रक्रति के साथ
बेहूदा खेल हो रहे
इंसान घुट घुट कर
जी रहे
हवस के गुलाम
हो रहे
जुबान को ताले 
लग गए
सब चुपचाप 
प्रक्रति के साथ होते
बलात्कार को
खुली आँखों से 
देख रहे
ज़मीर सब के 
बिक गए
सब अपने में 
सिमट गए
23-04-2011
747-167-04-11

1 comment:

Dr (Miss) Sharad Singh said...

यथार्थ के धरातल पर रची गयी एक सार्थक कविता !