शहर बढ़ रहे
जंगल घट रहे
सीमेंट कंक्रीट
दिल के करीब हो गए
फूल पेड़ ख़त्म हो रहे
दरिन्दे खुश हो रहे
जानवर रो रहे
प्रक्रति के साथ
बेहूदा खेल हो रहे
इंसान घुट घुट कर
जी रहे
हवस के गुलाम
हो रहे
जुबान को ताले
जंगल घट रहे
सीमेंट कंक्रीट
दिल के करीब हो गए
फूल पेड़ ख़त्म हो रहे
दरिन्दे खुश हो रहे
जानवर रो रहे
प्रक्रति के साथ
बेहूदा खेल हो रहे
इंसान घुट घुट कर
जी रहे
हवस के गुलाम
हो रहे
जुबान को ताले
लग गए
सब चुपचाप
प्रक्रति के साथ होते
बलात्कार को
खुली आँखों से
सब चुपचाप
प्रक्रति के साथ होते
बलात्कार को
खुली आँखों से
देख रहे
ज़मीर सब के
ज़मीर सब के
बिक गए
सब अपने में
सब अपने में
सिमट गए
23-04-2011
747-167-04-11
1 comment:
यथार्थ के धरातल पर रची गयी एक सार्थक कविता !
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