Sunday, October 28, 2012

विकृत सोच से मुक्त हो लूं



दुश्मनों से
खुद को बचाने के लिए
जेब में खंज़र तो रखता हूँ
पर वक़्त आने पर
खंज़र कैसे चलाऊंगा
इस बात से डरता हूँ
क्या किसी ऐसे से पूछूं
जो बेगुनाहों पर खंज़र
चला चुका है
या किसी ऐसे से पूछूं
जो खंज़र चलाना
सीख चुका है
कहीं मुझे ही ना मार दे
पूछते हुए भी डरता हूँ
फिर जेब में खंज़र क्यों
रखता हूँ
सारा ज़माना कहता है
इसलिए मैं भी खंज़र
रखता हूँ
या भ्रम में जीता हूँ
खंज़र रखने से बच जाऊंगा
कभी सोचता हूँ
खंज़र रखने से भी क्या होगा
जब खंज़र चला नहीं सकता
तो फिर क्यों खंज़र रखता हूँ
क्यों ना खंज़र को फैंक दूं
जिसको रखने भर से
हर पल केवल ज़ख्म खाने की
ज़ख्म देने की याद आती है
बिना खंज़र ही जी लूं
खुद को परमात्मा के
रहम-ओ-करम पर छोड़ दूं
विकृत सोच से मुक्त हो लूं
805-47-28-10-2012
विकृत सोच 

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