Friday, May 6, 2011

मेरे चुप को मेरी रज़ा ना समझना

मेरे चुप को 
मेरी रज़ा ना समझना
मजबूरी में कुछ ना
कहता
अपनों की बेवफाई
देख रहा
दिल उनमें अटका
हुआ
उनके खातिर चुपचाप
सहता
निरंतर अश्क खून के
बहाता
मुमकिन है,
फिर से बावफा हो जाएँ
इस उम्मीद में खामोश  
रहता 
06-05-2011
816-23-05-11

1 comment:

Unknown said...

उम्मीद पर ही तो दुनिया टिकी है. सुन्दर कविता.

चखें तीखा-तड़का
हमने की, सब करें पाकिस्तान की मदद