Monday, July 25, 2011

आज जो हो रहा उसे कौन देखना चाहता

छोटे बड़े मकानों के बीच

वो पतली सी गली उसके

आख़िरी छोर पर

मेरा पुश्तैनी मकान

चूने की दीवारें

छोटे छोटे कमरे

कौने में बिना मुंडेर की

पतली से सीढ़ी

सम्हल कर ऊपर चढो तो

समय से आहत,उबड़ खाबड़ छत

माता पिता की नज़रों से बच कर

उस पर चढ़ कर

भरी दोपहर में पतंग बाज़ी

किसका मांझा तेज़ है

वर्चस्व की लड़ायी

वोह काटा की आवाजें

जीत की किलकारियां

हार से मुरझाये चेहरों

की सिसकियाँ

आज जो जीता कल हारता

पतंग उड़ाना बंद ना होता

निरंतर याद आती

मुझे मेरी गली की पतंगबाजी

ना अब मैं वहां रहता

ना वो गली और मकान

सब विकास की भेंट चढ़ गया

अब एक बड़ा भारी मॉल वहां खडा है

जिसने मेरे अतीत को दबा दिया

साथ ही दबा दिया किलकारियों को

जोश खरोश को

भरी दोपहर में खेल को

छोड़ दिया बंद कमरों में टीवी को

उसके देख कर

सपने पूरे कर लो

अब भी नींद में वोह काटा की

आवाज़ मुंह से निकलती

बच्चे हंसी उड़ाते,फिर पूंछते

पापा पुराने दिन क्यों नहीं भूलते ?

उन्हें कैसे समझाऊँ

उन्ही दिनों ने अब तक ज़िंदा रखा

आज जो हो रहा

उसे कौन देखना चाहता

25-07-2011

1232-112-07-11

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