Saturday, July 16, 2011

निरंतर सोचता हूँ कब हथियार उठाऊँ मैं ?

मुल्क के नेता
लाशों पर सियासत
करते रहे
कुर्सी के खातिर
मजहब के नाम पर
हाथ पर हाथ धर कर
बैठे रहे
हम रोज़ अपनों को
खोते रहे
मासूम जान से हाथ
धोते रहे
वो जाम पर जाम
उड़ाते रहे
हम खून के घूँट
पीते रहे 

अब मुमकिन नहीं की
खामोशी से बैठ जाऊँ मैं
लोग मरते रहे
चुपचाप देखता जाऊँ मैं
सीने में सुलग रही
आग को
कब तक दबाऊँ मैं ?
निरंतर सोचता हूँ
कब हथियार 
उठाऊँ मैं ?
क्या इनके जैसा 
बन जाऊँ मैं ?
काम हैवान का 
कर दूं मैं ?
खुदा का ख्याल 
आते ही
रुक जाता हूँ मैं

16-07-2011
1192-72-07-11

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