Tuesday, January 24, 2012

विश्वास-अविश्वास-विश्वास


सर्द रात
फटे हुए कपड़ों में
सर घुटनों में छुपाए
सिसकियाँ ले कर
आंसू बहा रही थी
सर्दी में काँप रही थी
उस पर मेरी दृष्टि पडी
रोने का कारण
जानने की जिज्ञासा बड़ी
पास जाकर पूंछा
तो एक शब्द ना बोली
पहले से अधिक जोर से 
फफक फफक कर रो पडी
बार बार पूछने पर
विश्वास रखो
मदद करूंगा कहते ही
एकदम बिफर पडी
रोते रोते चिल्लाते हुए
पूरे आवेग से बोल पडी 
तुम भी कर लो
जो तुम्हें करना है
सब झूठ बोलते हैं
मुझे किसी पर विश्वास नहीं
पहले भी चार लोगों ने
मदद के बहाने
मुझे हवस का शिकार
बनाया
अब तुम भी मनमानी
कर लो
कहते कहते कांपते हुए
जमीन पर बैठ गयी
मुझे काटो तो खून नहीं
आगे एक शब्द भी नहीं
बोल सका
अपना कोट उतार कर
उसे ओढ़ा दिया
हाथ में पांच सौ का नोट
थमा दिया
भारी मन से  सोचता हुआ
घर की और चल दिया
कोई किसी की मजबूरी का
इतना फायदा कैसे उठा
सकता है?
उसका विश्वास शब्द  से ही
विश्वास उठ जाए 
हर व्यक्ति उसे हैवान
दिखाई देने लगे
तभी
पीछे से आवाज़ आयी
मुड के देखा तो
वो मेरे पीछे पीछे
चली आ रही थी
कहने लगी
बाबूजी मुझे माफ़ करना
आप पर विश्वास है
आपके पैसे वापस ले लो
सुबह से भूखी हूँ
पहले मुझे कुछ खिला दो
फिर मेरा इलाज
करवा कर
मुझे घर पहुंचा दो
मुझे  विश्वास नहीं हुआ
सोच में डूब गया 
अविश्वास
इतना शीघ्र विश्वास में
कैसे बदल गया ?
24-01-2012
76-76-01-12

2 comments:

***Punam*** said...

विश्वास पर अविश्वास...
अविश्वास पर विश्वास....
सुन्दर लेकिन मार्मिक...

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल said...

हमारे कर्म हमारे शब्दों से ज्यादा बुलंद आवाज रखते हैं..... कविता दिल छू गयी.. बधाई हो !