Saturday, April 9, 2011

बड़े कमरों के दरवाज़े छोटे हो गए

बड़े कमरों के
दरवाज़े छोटे हो गए
दिल छोटे
दरवाज़े बड़े हो गए
सब अपने में समेटना
चाहते
पर देना नहीं चाहते
देना सब भूल गए
सिर्फ लेना
अब ध्येय रह गया
निरंतर स्वार्थ बढ़ रहा
आदमी "मैं " में सिमट गया
"
मैं "और "मेरा"
दिल-ओ-दिमाग में
बस गया
रास्ते से भटक गया
इश्वर से दूर हो गया  
फिर भी मंजिल पाना
चाहता
जीवन को सार्थक बनाना
चाहता
सुकून से रहना चाहता
09-04-2011
634-67-04-11

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