जब
अपने ही ज़ख्म देते हैं
किसी और की ज़रुरत
नहीं होती
जीने की ख्वाइश भी
नहीं रहती
जब हँसना मुमकिन
नहीं होता
दिल टूट कर बिखर
चुका हो
गम दोस्त बन जाता
रोना ही साथ निभाता है
जब हर लम्हा मुझ को
मरना है
तो जी कर भी क्या
करना है
कैसे मुक्त हो जाऊं
बस अब यही सोचना है
17-03-2012
395-129-03-12
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