जहन में निरंतर दहकता
रात का वो समाँ ,कैसे भूल जाऊं
वो चाँद वो बहकती चांदनी
कैसे भूल जाऊं ?
दर्द-ऐ-दिल का आगाज़ हुआ
वो लम्हा कैसे भूल जाऊं ?
हसरतों का मिटना,ख़्वाबों का टूटना
कैसे भूल जाऊं?
उनका ज़िन्दगी से रुखसत होना
कैसे भूल जाऊं ?
ज़िन्दगी में आया वो ज़लज़ला
कैसे भूल जाऊं ?
बड़ी बेदिली से निकाला था
दिल से मुझे
उस रात को कैसे
भूल जाऊं ?
04-04-2011
597—30 -04-11
No comments:
Post a Comment