Saturday, November 3, 2012

इतना खुदगर्ज़ नहीं हूँ



इतना खुदगर्ज़ नहीं हूँ
बस्ती में घर जल रहे हैं
मैं घर को रोशनी से सजाऊँ
लोग मातम मना रहे हैं
मैं खुशी के गीत गाऊँ
इतना बेदिल भी नहीं हूँ
लोगों के दिल
गम में टूट रहे हैं
मैं दिल-ऐ-सुकून के लिए
दर दर भटकता रहूँ
सिर्फ अपने लिए जीता रहूँ
इंसान हूँ इंसान बन कर
जीना चाहता हूँ
 मुझे फ़िक्र नहीं
खुशी मिले या गम
दुनिया के दुःख दर्द में
काम आना चाहता हूँ
हँसते के साथ हंसना
रोते के साथ रोना
चाहता हूँ
817-01-03-11-2012
खुदगर्ज़ 

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