ज़िन्दगी के
आख़री मोड़ पर खडा हूँ
भारी भोज तले दबा हूँ
ज़माने के अहसानों से लदा हूँ
कैसे लौटाऊँ निरंतर
सोचता हूँ
क्यूं ना जवाब अपने
तरीके से दूं
पत्थर का जवाब फूलों से दूं
नफरत का मोहब्बत से दूं
ज़ख्मों का सिला मलहम से दूं
जाते जाते मैं भी अहसान
ज़माने पर कर जाऊं
बाद में याद आऊँ
ऐसा कुछ कर जाऊं
28-02-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
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