297—02-11
गम-ऐ-हयात
पहले ही बहुत
क्यों दिल
अपना मुझ को देते
कबूल कर लिया तो
रातों की नींद उडेगी
आ भी गयी तो
ख़्वाबों में तुम दिखोगी
इंतज़ार मिलने का रहेगा
नहीं मिलोगी तो
दिल रोएगा
दिल रोएगा
इश्क जितना परवान
चढ़ेगा
चढ़ेगा
ज़माने का रश्क उतना
बढेगा
बढेगा
निरंतर वादा निभाना
पड़ेगा
पड़ेगा
ज़माने से लड़ना होगा
उम्र कितनी भी ले लें
इक दिन दुनिया से
जाना होगा
जुदा इक दूसरे से
होना होगा
ग़मों का पहाड़ टूटेगा
रो रो कर जीना होगा
वो आज भी कर रहा हूँ
कबूल कर भी लूं
तो नया क्या होगा
गम-ऐ-हयात
बदस्तूर जारी रहेगा
21-02-2011
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर"
गम-ऐ-हयात= जीवन का दुख
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