Tuesday, August 9, 2011

मन की पीड़ा मन में नहीं रहती

मन कितना भी

कठोर कर लो

चाहे जितना

खुद को समझा लो

मन की पीड़ा

निरंतर

मन में नहीं रहती

बाहर आ ही जाती

लाख छिपाओ

छुप नहीं पाती

कभी आँखों से अश्क

बन कर बहती

निरंतर

चेहरे पर झलकती

कभी जुबां से

निकलती

कभी कलम के ज़रिये

जग को पता

पड़ती

मन की पीड़ा मन में

नहीं रहती

09-08-2011

1322-44-08-11

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