मन कितना भी
कठोर कर लो
चाहे जितना
खुद को समझा लो
मन की पीड़ा
निरंतर
मन में नहीं रहती
बाहर आ ही जाती
लाख छिपाओ
छुप नहीं पाती
कभी आँखों से अश्क
बन कर बहती
निरंतर
चेहरे पर झलकती
कभी जुबां से
निकलती
कभी कलम के ज़रिये
जग को पता
पड़ती
नहीं रहती
09-08-2011
1322-44-08-11
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