Wednesday, December 19, 2012

तुम्हारी तरफ हाथ बढाता हूँ



तुम्हारी तरफ  हाथ
बढाता हूँ
तुम्हारा अभिवादन
करता हूँ
तुम मेरा हाथ पकडती भी हो
मुस्कराकर मेरा अभिवादन
स्वीकार भी करती हो
फिर अचानक
मुंह फिरा लेती हो
बार बार यही  बात
दोहराई जाती है
या तो तुम सोचती हो
मैं तुम पर आसक्त हूँ
तुमसे प्रेम का इज़हार
करता हूँ
या तुम समझती हो मैं
केवल औपचारिकता
निभाता हूँ
मैं तो केवल मित्र भाव
दर्शा रहा था
बिना मंतव्य जाने
ऐसा सोचना भी अपराध है
मित्र को शक और स्वार्थ से
ऊपर रहना होता है
मैं तो केवल एक सच्चे
मित्र को ढूंढ रहा था
तुम में शक और बहम  से दूर
एक मित्र नज़र आया
इसलिए सम्बन्ध बढ़ा
रहा था
970-89-19-12-2012
शक,बहम  

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