Saturday, December 1, 2012

कुछ कहना चाहता हूँ तो जुबां चुप हो जाती है



विचारों के बाँध का
तटबंध तोड़ना चाहता हूँ
मन की कुंठा
निकालना चाहता हूँ
कुछ कहना  चाहता हूँ
तो जुबां चुप हो जाती है
लिखना चाहता हूँ
तो कलम रुक जाती है
क्या कहूं
क्या ना कहूं
के चक्रवात में फंस
जाती है
कुंठा कुंडली मार कर
मन में बैठ जाती है
ज़िन्दगी उलझ कर
रह जाती है
883-02-01-12-2012
मन ,कुंठा, ज़िन्दगी

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