वो रोज़
स्कूल के बाहर
खडा रहता था
छुट्टी के बाद
खोमचों को घेरे,
बच्चों को देखता था
मैंने एक दिन उस से पूछां
कुछ खाओगे?
वो बोला नहीं
निरंतर यही होता था
मैं पूंछता,वो मना करता
मुझ से रहा ना गया,
एक दिन उस से पूँछ ही लिया
क्या करते हो ?कहाँ रहते हो?
वो बोला भिखारी नहीं हूँ
अनाथ हूँ
बगल के घर में रहता हूँ
वहीँ काम करता हूँ
मैं भी पढ़ना चाहता हूँ
इन की तरह,स्कूल जाना
चाहता हूँ
सब खाने की पूँछते हैं,
मुझे भिखारी
समझते हैं
मैं भी पढ़ कर कुछ बनना
चाहता हूँ
मैं सोचने लगा!
हम क्यों सब को,एक नज़र
से देखते हैं
अपने को उनसे,बेहतर
समझते हैं
हर मांगने वाले को,
भिखारी समझते हैं
उनकी मजबूरी का
अहसास नहीं करते
08-10-2010
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