Wednesday, February 9, 2011

मुसाफिर हूँ,ज्यादा देर कहीं ठहरता नहीं, मंजिल मेरी तय नहीं



236—01-11


मुसाफिर हूँ
ज्यादा देर कहीं
ठहरता नहीं
मंजिल मेरी तय नहीं
साथी सफ़र में
निरंतर बदलता
जो सहारा देता साथ
होता
जो छोड़ता,पीछे रह 
जाता
पतंग जैसे के एक डोर से
बंधा ना रहता
नए लोगों से मिलता
नए चेहरे देखता
दिल अपना कहीं ना 
छोड़ता
कौन मुझे पास रखले
सफ़र मेरा रोक दे
इस बात से डरता
इंसान , 
मुसाफिर दुनिया में
खुदा उसे भी वापस 
बुलाता
मुझे भी वापस जाना
फिर दिल क्यूं किसी से
लगाना
क्यूं उसे तोड़ना
यादों से उसे भी 
तडपाना
सफ़र अकेले ही पूरा 
करना
पूरा ना हो तब तक
पंछी सा उड़ते रहना
09-02-2011

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