229--02-11
मैं
समंदर नहीं हूँ
उफनूं तो सब कुछ
अपने में समा लूं
वजूद बहुतों का मिटा दूं
मैं नदी नहीं निरंतर
बहता रहूँ
उफनूं तो जो पास आए
डूबा दूं
बेघर बहुतों को कर दूं
लोगों को रोता छोड़ दूं
मैं कुआ भी नहीं हूँ
निरंतर सफाई जिसकी
ज़रूरी
जल ना निकालो तो
बासने लगता
मैं ताल भी नहीं ,
दायरे में सिमटा हूँ
भरने के लिए बरसात का
इंतज़ार करता
मैं जल का सोता हूँ
निरंतर जल उगलता
जो अन्दर है बाहर लाता
इंतज़ार ना करता
ना कुछ छुपाता
बात दिल की कहता
निरंतर बेबाक लिखता
पसंद आए शीश नवाता
नापसंद हो
मुस्करा कर फिर
लिखता
08-02-2011
No comments:
Post a Comment