वो पतली सी गली उसके
आख़िरी छोर पर
मेरा पुश्तैनी मकान
चूने की दीवारें
छोटे छोटे कमरे
कौने में बिना मुंडेर की
पतली से सीढ़ी
सम्हल कर ऊपर चढो तो
समय से आहत,उबड़ खाबड़ छत
माता पिता की नज़रों से बच कर
उस पर चढ़ कर
भरी दोपहर में पतंग बाज़ी
किसका मांझा तेज़ है
वर्चस्व की लड़ायी
वोह काटा की आवाजें
जीत की किलकारियां
हार से मुरझाये चेहरों
की सिसकियाँ
आज जो जीता कल हारता
पतंग उड़ाना बंद ना होता
निरंतर याद आती
मुझे मेरी गली की पतंगबाजी
ना अब मैं वहां रहता
ना वो गली और मकान
सब विकास की भेंट चढ़ गया
अब एक बड़ा भारी मॉल वहां खडा है
जिसने मेरे अतीत को दबा दिया
साथ ही दबा दिया किलकारियों को
जोश खरोश को
भरी दोपहर में खेल को
छोड़ दिया बंद कमरों में टीवी को
उसके देख कर
सपने पूरे कर लो
अब भी नींद में वोह काटा की
आवाज़ मुंह से निकलती
बच्चे हंसी उड़ाते,फिर पूंछते
पापा पुराने दिन क्यों नहीं भूलते ?
उन्हें कैसे समझाऊँ
उन्ही दिनों ने अब तक ज़िंदा रखा
आज जो हो रहा
उसे कौन देखना चाहता
25-07-2011
1232-112-07-11
No comments:
Post a Comment