वो कौने में बैठी
आज फिर
सिसकियाँ ले कर
रो रही थी
कई बार अस्मत
लुटा चुकी थी
हवस के शिकारियों से
नुच चुकी थी
आने जाने वालों को
उसकी फ़िक्र ना थी
उसे देख कर निकल
जाना
उनकी इंसानियत
बयाँ करती
मनचलों के लिए
निरंतर
खेल की चीज़ थी
भद्दी गालियाँ
फिकरे सुनना उसकी
किस्मत थी
वो एक एक मजबूर
भिखारन थी
वक़्त की मारी हुयी
खुदा की औलाद थी
उसकी आँखों के सामने
पेट के खातिर
बार बार मरती थी
क्यों उसे नारी बनाया ?
रोज़ खुदा से पूछती
20-07-2011
1209-89-07-11
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