Saturday, November 12, 2011

क्षणिकाएं--1



पहल

आमने सामने
बैठे थे
दोनों चुप थे
पहल कौन करे
सोच में डूबे थे
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डर

रात के डर से
दिन का उजाला
बर्बाद करते रहे
ज़िन्दगी भर
रोते रहे
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असमंजस

असमंजस
ना जीने देता
ना मरने देता
फैसला
नहीं होने देता
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आँसूं

शरीर का 
अतरिक्त पानी
आँखों से बह कर
दिल और दिमाग का
बोझ हल्का 
करता
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निरंतर

रुके तो रुका रहे
चले तो चलता रहे
जीवन यूँ ही काटता रहे
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हँसी

हँस तो लिए
हँसाया क्यों नहीं ?
ये भी सोचा कभी
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12-11-2011
1781-52-11-11

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