Wednesday, November 16, 2011

क्षणिकाएं -3


जीवन
जीना है तो
लड़ना है
लड़ना है तो
चोट भी खाना है
जीवन का अंत
ऐसे ही होना है
आज कल
आज कल
ना सुन सकते
ना कह सकते
बस चुप रह
सकते
लेना-देना
देनेवाले बहुत हैं
लेने वाला चाहिए
दिल-ओ-दिमाग के
दरवाज़े
निरंतर खुले होने
चाहिए
जिज्ञासा
कौन क्या करेगा?
किसी को नहीं पता
पर हर शख्श
सवाल ज़रूर पूछेगा
दुनिया
मैं हँसूं
तो सब हँसें
मैं रोऊँ तो
कोई ना रोये
संशय
कैसे कहूँ ?
किस से कहूँ ?
कहूँ या ना कहूँ ?
व्यथा
कोई क्या कहेगा ?
कोई क्या सोचेगा ?
प्रशंसा
प्रशंसा अच्छी लगती है
बुराई कानों में चुभती है
सच महत्वहीन हो जाता
16-11-2011
1794-65-11-11

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