इस बार
तुम्हारे अंदाज़ में
अजीब सी कशिश थी
तुम्हारी
निगाहें फर्क थी
तुमसे मिल कर
कुछ मुझे भी होने लगा
जहन में
खुशनुमा अहसास
हुआ
दिल का धडकना
बढ़ गया
मन कहने लगा
थोड़ा सा आगे बढूँ
तुमसे इल्तजा करूँ
तुम्हारी रज़ा जान लूं
निशात-ऐ वस्ल को
यादगार बना लूं
निरंतर
दिल में पल रही
उम्मीदों को मुकाम दूं
(निशात-ऐ वस्ल =मिलन की खुशी)
20-10-2011
1679-86-10-11
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