Sunday, February 13, 2011

ज़माने से क्या गिला करूँ,जब अपने पराये हो गए

248—01-11

 ज़माने से
क्या गिला करूँ
जब अपने पराये 
हो गए
सर परस्त अब
मौक़ा परस्त हो गए
एक लब्ज पर जान
लुटाने वाले
अब  दुश्मन-ऐ-जान 
हो गए
तारीफ़ करने वाले
ज़हर उगल रहे
निरंतर दिल-ओ-जान से
चाहा जिन्हें
वो ही दिल तोड़
 गए
13-02-2011

 
 

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