मेरे घर का रास्ता
उसके घर के
बाहर से जाता
जैसे जैसे उसका घर
निकट आता
मन में सुखद कम्पन
प्रारम्भ हो जाता
आज दिखेगी या नहीं ?
आशंकाओं से घिर जाता
कदम ठहरने लगते
दूर से ही आँखें
घर की ओर उठने
लगती
चाल की गति धीमी
हो जाती
गर्दन सहसा
घर की ओर मुड़ जाती
पर वो कभी नहीं
दिखती
केवल एक बार
देखा था उसको
मन उसे दोबारा
देखने का हठ करता
तब से निरंतर ऐसा ही
होता था
महीने बीत गए
वो दोबारा नहीं दिखी
मन निरंतर व्यथित
होता
अनबुझी चाहत से
घिरा रहता
मानो पूछ रहा हो
मेरे साथ ही सदा
ऐसा क्यों होता ?
मृग मरीचिका को
पानी समझ भटकता
रहता
मृग सा मैं भी
जब से अब तक
भटक रहा हूँ
उसे देखने को
तड़प रहा हूँ
20-09-2011
1530-101-09-11
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