Monday, September 19, 2011

अनबुझी चाहत

मेरे घर का रास्ता
उसके घर के 
बाहर से जाता
जैसे जैसे उसका घर
निकट आता
मन में सुखद कम्पन
प्रारम्भ हो जाता
आज दिखेगी या नहीं ?
आशंकाओं से घिर जाता
कदम ठहरने लगते
दूर से ही आँखें
घर की ओर उठने
लगती
चाल की गति धीमी
हो जाती 
गर्दन हसा
घर की ओर मुड़ जाती
पर वो कभी नहीं
दिखती
केवल एक बार
देखा था उसको
मन उसे दोबारा 
देखने का हठ करता
तब से निरंतर ऐसा ही
होता था
महीने बीत गए
वो दोबारा नहीं दिखी
मन निरंतर व्यथित
होता 
अनबुझी चाहत से
घिरा रहता
मानो पूछ रहा हो
मेरे साथ ही सदा
ऐसा क्यों होता ?
मृग मरीचिका को
पानी समझ भटकता
रहता
मृग सा मैं भी
जब से अब तक
भटक रहा हूँ
उसे देखने को
तड़प रहा हूँ
20-09-2011
1530-101-09-11

No comments: