Saturday, September 17, 2011

ढूंढता रहता हूँ

हर दिन नया
चाँद निकलता है
अपनी रोशनी से
मुझे नहलाता है
मैं सोचने लगता हूँ
अब हर पल
रोशनी में डूबा रहूँगा
बरसों के अँधेरे से
बाहर निकल जाऊंगा
खुशी के कुछ पल भी
देख नहीं पाता
ठीक से मुस्करा भी
नहीं पाता
पूर्णिमा का चाँद
अमावस का बन जाता
अन्धेरा मुझे फिर से
ढक लेता है
निरंतर नए चाँद की
तलाश में
मैं सदा की तरह
भटकता रहता हूँ
आशाओं के समुद्र में
चैन की सीपियों को
ढूंढता रहता हूँ
17-09-2011
1518-89-09-11

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