नज़रें चुराते हो तुम
डर से सहमते हो तुम
निरंतर
बहम से जीते हो तुम
सब को एक नज़र से
देखते हो तुम
कसूर तुम्हारा भी नहीं
कई बार भुगता तुमने
हँस के लुभाया
मुस्कान से भरमाया
लोगो ने
खंजर पीठ में भोंका
लोगो ने
मैं ना कहता तुम
ऐतबार करो मुझ पर
कम से कम निरंतर
शक ना करो मुझ पर
गुनाह से पहले
कातिल ना समझो
मुझ को
इतनी सी दया करो
मुझ पर
27-09-2011
1569-140-,09-11
No comments:
Post a Comment