मेरे अखलाक का
तकाजा नहीं कहता
की घर आये को
लौटाऊँ
वो दुश्मन ही क्यूँ
ना हो
उसे गले से ना
लगाऊँ
मेहमाँ हो
दिल रोशन जिस से
उस शमा को
को कैसे भूल जाऊँ?
निरंतर हर लम्हा
जिया तुम्हारे खातिर
तुम्हें भूल कर
मौत को गले कैसे
लगाऊँ?
(अखलाक=सदभावना,सदाचार)
22-09-2011
1541-112-09-11
1 comment:
बरबस ही निदा फाजली जी की पंक्तियाँ याद आ गईं-
"कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है
तुमको न भूल पाएंगे हम,ऐसा लगता है
तुम क्या बिछड़े भूल गए,रिश्तों की शराफत हम
जो भी मिलता है,कुछ दिन ही अच्छा लगता है।"
Post a Comment