Thursday, February 23, 2012

समझ नहीं आता क्या करूँ?


समझ नहीं आता
क्या करूँ?
कैसे मन की बात कहूं?
क्या लोक लाज को
छोड़ दूं?
सीमाओं को तोड़ दूं
शहर में उसे आम करूँ
खुद की हँसी उड्वाऊँ  
या चुप रह कर
घुटता रहूँ
मकडी के जाले जैसी
कुंठाओं में उलझा रहूँ
बुरी तरह जकड़ा रहूँ
दिन रात तडपता रहूँ
उन्हें और पनपने दूं
या सब्र से काम लूं
वक़्त गुजरने का
इंतज़ार करूँ
परमात्मा पर छोड़ दूं
वो ही रास्ता निकालेगा
उम्मीद में जीता रहूँ
23-02-2012
224-135-02-12

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