गिला खुदा से नहीं
जो रूप परी का
और चेहरा चाँद सा
तुम्हें दिया
शिकायत है
तुम्हें कहीं और
बसाया
गर जो घर तुम्हारा
मेरे घर के सामने होता
उगते ही
तुम्हारी चांदनी में
नाहता
निरंतर उजाले में रहता
अन्धेरा क्या होता
कभी पता ना पड़ता
सामने तुम्हारे घर के
ज़िन्दगी काटता
24-03-03
डा.राजेंद्र तेला"निरंतर",अजमेर
493—163-03-11
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