Thursday, March 31, 2011

पहल कौन करे?


दोंनों ट्रेन में
आमने सामने बैठे थे
रह रह कर
एक दूसरे को देखते थे
चेहरे इक दूजे को
जाने पहचाने लगते 
कभी कनखियों से,
कभी नज़रें मिला कर
कहाँ देखा? 
याद करने की कोशिश 
करते रहे
दिमाग पर जोर डालते रहे ,
कौन पहल करे,सोचते रहे
स्टेशन आया
एक की यात्रा पूरी हुयी
जिज्ञासा ख़त्म ना हुयी
भाग कर डब्बे पर लगी
आरक्षण सूची पढी तो
उस सीट पर बैठे शख्श का
नाम पता पडा
याद आया पुराना मित्र था
स्कूल में साथ पढता था
आज चालीस वर्ष बाद
देखना हुआ
मिलने की इच्छा में भाग कर
डब्बे में चढ़ने के कोशिश करी ,
पर ट्रेन गति पकड़ चुकी थी
मिलने की इच्छा अधूरी रह गयी
झिझक और पहल कौन करे?
 के अहम् ने
आज मित्र से मिलने का
सुनहरी अवसर गवां दिया
अब पछता रहा था 
इंसान निरंतर अहम् में
खोता रहा
सिवा झूठी संतुष्टि किसी को
आज तक कुछ ना मिला
31-03-03
560—230-03-11

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